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|रचनाकार=अरुणा राय
}}
{{KKCatKavita}}जिस समय <brpoem>जिस समय मैं उसे <br> अपना आईना बता रही थी <br> दरक रहा था वह <br> उसी वक़्त <br> टुकड़ों में बिखर जाने को बेताब सा <br> हालाँकि <br> उसके ज़र्रे-ज़र्रे में <br> मेरी ही रंगो-आब <br> झलक रही थी <br> पर मैं क्या कर सकती थी <br> कि वह आईना था <br> तो उसे बिखरना ही था <br> अब भी मैं उसकी आँखें हूँ <br> और हर ज़र्रे से <br> वे आँखें <br> मुझे ही निहार रही हैं <br> पर क्या कर सकती हूँ मैं <br> कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे <br> कि अपनी हज़ार सूरतें <br>
निहार सकूँ...
</poem>
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