"सुब्ह-ए-फ़र्दा / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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सुब्ह-ए-फ़र्दा<ref>आनेवाले कल की सुबह </ref> | सुब्ह-ए-फ़र्दा<ref>आनेवाले कल की सुबह </ref> | ||
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इसी सरहद पे कल डूबा था सूरज हो के दो टुकडे़ | इसी सरहद पे कल डूबा था सूरज हो के दो टुकडे़ | ||
इसी सरहद पे कल ज़ख़्मी हुई थी सुब्हे-आज़ादी | इसी सरहद पे कल ज़ख़्मी हुई थी सुब्हे-आज़ादी |
10:35, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
सुब्ह-ए-फ़र्दा<ref>आनेवाले कल की सुबह </ref>
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इसी सरहद पे कल डूबा था सूरज हो के दो टुकडे़
इसी सरहद पे कल ज़ख़्मी हुई थी सुब्हे-आज़ादी
यह सरहद ख़ून की, अश्कों की, आहों की, शरारों की
जहाँ बोयी थी नफ़रत और तलवारें उगायी थीं
यहाँ महबुब आँखों के सितारे तिलमिलाये थे
यहाँ माशूक़ चेहरे आँसुओं में झिलमिलाये थे
यहाँ बेटों से माँ, प्यारी बहन भाई से बिछडी़ थी
यह सरहद जो लहू पीती है और शो’ले उगलती है
हमारी ख़ाक की सरहद पे नागिन बनके चलती है
सजाकर जंग के हथियार मैदाँ में निकलती है
मैं इस सरहद पे कब से मुन्तज़िर हूँ सुब्ह-ए-फ़र्दा का
२.
यह सरहद फुल की, ख़ुशबू की, रंगों की, बहारों की
धनक की तरह हँसती, नदियों की तरह बल खाती
वतन के आरोज़ों<ref>कपालें</ref> पर ज़ुल्फ़ की मानिन्द लहराती
महकती, जगमगाती, इक दुल्हन की माँग की सूरत
कि जो बालों को दो हिस्सों में तक़सीम करती है
मगर सिंदूर की तलवार से, सन्दल की उँगली से
यह सरहद दिलबरों की, आशिकों की, बेक़रारों की
यह सरहद दोस्तों की, भाइयों की, ग़मगुसारों की
सहर को आये ख़ुरशीदे-दरख़्शाँ पासबाँ बनकर
निगहबानी हो शब को आसमाँ के चाँद तारों की
ज़मीं पामाल हो जाए, भरे खेतों की यूरिश से
सिपाहें हमलाआवर हों दरख़्तों की क़तारों की
खु़दा महफ़ूज़ रक्खे इसको ग़ैरों की निगाहों से
पडे़ नज़रें न इस पर ख़ूँ के ताजिर ताजदारों की
महब्बत हुक्मराँ हो, हुस्न का़तिल, दिल मसीहा हो
चमन पे आग बरसे शोलः-पैकर<ref>अंगारे की भाँति देह वाला</ref> गुलइज़ारों की
वो दिन आये कि नफ़रत हो के आँसू दिल से बह आये
वो दिन आये यह सरहद बोसा-ए-लब बनके रह जाये
३.
यह सरहद मनचलों की, दिल जलों की, जाँनिसारों की
यह सरहद सरज़मीने-दिल के बाँके शहसवारों की
यह सरहद कजकुलाहों<ref>तिरछी टोपी लगानेवाले</ref> की, यह सरहद कजअदाओं की
यह सरहद गुलशने-लाहौरो-दिल्ली की हवाओं की
यह सरहद अम्नो-आज़ादी के दिलअफ़रोज़ ख़्वाबों की
यह सरहद डूबते तारों, उभरते आफ़ताबों की
यह सरहद ख़ूँ मे लिथडे़ प्यार के ज़ख़्मी गुलाबों की
मैं इस सरहद पे कब से मुन्तज़िर हूँ सुब्हे-फ़र्दा का