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एक संग- तराश<ref>मूर्तिकार</ref> जिसने बरसों | एक संग- तराश<ref>मूर्तिकार</ref> जिसने बरसों |
19:33, 24 नवम्बर 2009 का अवतरण
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सवाल
(‘फ़िराक़' की तस्वीर देखकर)
एक संग- तराश<ref>मूर्तिकार</ref> जिसने बरसों
हीरों की तरह सनम<ref>प्रतिमाएँ</ref> तराशे
आज अपने सनमकदे<ref>मंदिर</ref> में तन्हा<ref>अकेला</ref>
मजबूर, निढाल,ज़ख़्म-ख़ुर्दा<ref>घायल</ref>
दिन रात पड़ा कराहता है
चेहरे पे उजाड़ ज़िन्दगी के
लम्हात<ref>क्षणों</ref> की अनगिनत ख़राशें<ref>रगड़ें</ref>
आँखों के शिकस्ता<ref>टूटे-फूटे</ref> मरक़दों<ref>समाधियों</ref> में
रूठी हुई हसरतों की लाशें
साँसों की थकन बदन की ठंडक
अहसास से कब तलक लहू ले
हाथों में कहाँ सकत <ref>ताक़त</ref> कि बढ़कर
ख़ुद-साख़्ता<ref>स्वयं द्वारा निर्मित</ref> पैकरों <ref>आकृतियों</ref> को छू ले
ये ज़ख़्मे-तलब<ref>माँग के घाव</ref>, ये नामुरादी<ref>दुर्भाग्य</ref>
हर बुत के लबों<ref>होंठों</ref> पे है तबस्सुम<ref>मुस्कान</ref>
ऐ तेशा-ब-दस्त<ref>हाथ में कुदाली लिए हुए</ref> देवताओ!
तख़्लीक़<ref>सृजन</ref> अज़ीम<ref>महान</ref> है कि ख़ालिक़<ref>सृजक</ref>
इन्सान जवाब चाहता है