भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मेरा मन / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा | |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा | ||
− | }} <poem> | + | }} |
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता! | मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता! | ||
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल, | जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल, | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 16: | ||
मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया, | मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया, | ||
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता! | वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता! | ||
− | |||
− | |||
</poem> | </poem> |
12:30, 8 दिसम्बर 2009 का अवतरण
मेरा चंचल मन भी कैसा, पल में खिलता, मुरझा जाता!
जब सुखी हुआ सुख से विह्वल, जब दु:खी हुआ दु:ख से बेकल,
वह हरसिंगार के फूलों सा सुकुमार सहज कुम्हला जाता!
फूला न समाता खुश होकर, या घर भर देता रो-रोकर,
या तो कहता, 'दुनिया मेरी, या 'जग से मेरा क्या नाता!
मेरे मन की यह दुर्बलता, सामान्य नहीं निज को गिनता,
वह अहंकार से उपजा है, इसलिए सदा रोता-गाता!
मैंने बहुतेरा समझाया, मन अब तक समझ नहीं पाया,
वह भी मिट्टी से ही निकला, फिर मिट्टी ही में मिल जाता!