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"एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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गगन पर सितारेएक तुम हो,
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गगन पर सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं- एक तुम हो,
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धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैंएक तुम हो,  
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‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,  
हिमालय दो शिखर है- एक तुम हो,  
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::रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,  
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,  
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::कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।  
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।  
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::कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,  
 
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::हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,  
कला के जोड़-सी जग गुत्थियाँ ये,  
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::तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,  
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,  
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::कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।  
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,  
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::तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,  
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।  
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::तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,  
 
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::तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,  
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,  
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::कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।  
तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,  
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तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,  
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कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।  
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तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,  
 
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,  
 
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,  
 
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,  
 
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,  
 
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,  
 
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
 
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
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::तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
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::तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
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रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
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कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
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::प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
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::जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।
  
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
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'''रचनाकाल: खण्डवा-१९४०
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
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रहे मन-भेद तेरा और मेरा,
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अमर हो देश का कल का सबेरा,
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कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा;
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कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा
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प्रलय की आह युग है, चाह तुम हो,
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जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो ।
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17:52, 12 दिसम्बर 2009 का अवतरण

गगन पर सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।
कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०