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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शलभ श्रीराम सिंह]]</td>
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'''आज़ादी की पचासवीं सालगिरह पर एक कविता'''
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पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया
नाश्ते के लिए भुनी हुई स्त्री का गोश्त लाया जाए
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इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया  
हाथ धोने के लिए अगवा किये गए
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किसी बच्चे की खोपड़ी में लाया जाए ठण्डा पानी
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शाल के बदले किसी निर्दोष नागरिक की चमड़ी लाई जाए
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महामहिम परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
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भ्रष्ट्राचार  के पचास वर्ष पूरे हुए
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बलात्कार और व्यभिचार के पचास वर्ष
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पूरे हुए पचास वर्ष हत्या और हाहाकार के
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मानवता के सारे प्रतिमान ढहाए गए
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बहाए गए घडियाली आँसूं जार-जार
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चढ़ाए गए आख़िरी ऊँचाई तक प्रार्थनाओं के स्वर
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भगवानों के घर जलाए और गिराए गए
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जी भर तबाह की गई दिलों की ख़ूबसूरती
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वादियों और बस्तियों पर तैनात हुए सन्नाटे
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गोलियों से खेले गए मज़हब और जबान के खेल
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मेल बरकरार रखने के लिए हिन्दू-मुस्लिम -जैन-सिख ईसाई का
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नारा लगते हुए 'भाई-भाई' का, पूरे हुए पचास वर्ष
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सवाल उठाते-उठाते -
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बोलियाँ नंगी हो गई हैं भाषाएँ छिनाल
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मनों की सुन्दरता समाप्त हो गई हैं तनों के विज्ञापनों से
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फिर भी कुछ लोगों के लिए
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'मचलती और झूमती हुई आ रही है आज़ादी '
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बर्बादी का ऐसा बेशर्म जश्न कब और कहाँ मनाया गया है इतिहास में ?
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इस बीच लगातार हलाल हुए हैं भगत सिंहों के सपने
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बिस्मिलों की तमन्नाएँ ,अशफ़ाक‍उल्लाओं के जज्बात
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सुभाषों की ललकारें, गाँधीयों  के सन्देश और जयप्रकाशों की तड़प ,
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हिंसा और हड़प के पैरोकारों का ध्यान नहीं गया उधर
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कान नहीं गया किसी का दुर्घटना के इतनें कड़े कर्कश नाद पर
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भविष्य के अन्धेरों से भयभीत -
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रोशन उँगलियों की प्रतीक्षा करता रहा देश
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आज़ादी के पहले की बात और थी, आज़ादी के बाद की और है
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वह गुलामी का दौर था ,यह गुलामों का दौर है
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वनों की हरियाली नष्ट की गई इस बीच
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घोटा गया नदियों का गला
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पहाड़ों  की खाल खींची गई पूरी बेरहमी के साथ
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पशुओं की भूख तक भुनाई जा रही है शान से
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ईमान के गले पर पाँव रख कर की जा रही है बेईमानी
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जान और जहान से बड़ा हो गया है पैसा
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काहे की देशभक्ति ,नैतिकता काहे की, न्याय कैसा ?
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ज्ञान के मंदिरों में गुंडे तैयार किए जा रहे हैं यहाँ
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झकाझक परिधानों में विचर रहे हैं मूँछ मुंडे अपराधी
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पूरा का पूरा मुल्क इनके बाप की जागीर हो जैसे
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चारो ओर बोलबाला है तस्कर संस्कृति का
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अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं
रिश्वत-कमीशन-हवाला और घोटाला है चारों ओर
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मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया
  
और इस देश का परधान मन्तरी मजबूर है
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हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के, दोस्तो!
मजबूर है हमारा सब से बड़ा और विश्वसनीय सन्तरी
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लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया
  
एक सदा जीवित जन-संसार पर्दे के पीछे सरकाया जा रहा है
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गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में  
दरकाया जा रहा है देश का भूगोल अपनी इच्छा भर
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जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया
दराँतियों से दराँतियाँ नहीं ,जातियों से जातियाँ भिड़ाई जा रही हैं
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वर्ण-विद्वेष की लडाइयाँ लडाई जा रही हैं ,वर्ग-संघर्ष  के बदले
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मूर्तियों की आड़ में जबरजोत की जंग जारी है
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एक ख़तरनाक चुप्पी तारी है कश्मीर से कन्याकुमारी तक
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उदार बनाये जाने के चक्कर में नगद से उधार होता जा रहा है देश
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किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें
उधार होता जा रहा है विश्वबाज़ार में बदलते हुए ख़ुद को
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फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया  
जडी-बूटियों तक पर नहीं रह गया उसका अधिकार
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नीम तक को लाकर पटक दिया है बाज़ार की चौखट पर
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यह एक जीवित धिक्कार है हमारे लिए
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पिछले पचास वर्षों में इस देश की अंतरात्मा सो गई है
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सैलाब--नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर
गिद्धों और महागिद्धों की भूमि हो गई है इस देश की धरती
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वो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गया
सोने की चिड़िया की जान साँसत में है
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आफ़त में है कविता का एक-एक शब्द
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भ्रष्टाचार -बलात्कार -व्यभिचार -हत्या
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और हाहाकार के पचास वर्ष पूरे हुए
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परेड की सलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
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महामहिम
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रचनाकाल : 14-15 अगस्त 1997 , मध्य रात्रि ,विदिशा
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'''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''</pre>
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15:09, 15 दिसम्बर 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया
  रचनाकार: शीन काफ़ निज़ाम
पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया 
इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया 

अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं 
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया 

हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के, दोस्तो! 
लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया 

गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में 
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया

किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें 
फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया 

सैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर 
वो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गया