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::प्राण ’थर’ बन तैरते हैं
::उन्हें निष्प्राणित न कर दो।
::ले मलाई से दृगों के पोर,
::गो-स्तन खींच लाये,
::बँधे धेनु-किशोर का
::अधिकार लूट, उलीच लाये।
::दूध की धारा मृदंगिनि
::जन्म का स्वर रुदन बोली
::कंकणों की मधुर ध्वनि ने
::वलय-मयी मिठास घोली
::विवश उनकी रात की
::बाँधी, उसाँसें छूटती थीं
::दूध की हर बूँद पर, तड़पन
::लिये थी, टूटती थी।
::और माटी की मटकिया
::गोद पर ’घन’ सी बनी थी,
::मधुर उजले प्राण भर कर
::प्रणय के मन-सी बनी थी।
::वन्य-टेकड़ियाँ छहर
::दुग्धायमान गुँजार करतीं,
::
 
'''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४
</poem>
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