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::प्राण ’थर’ बन तैरते हैं
::उन्हें निष्प्राणित न कर दो।
 
::ले मलाई से दृगों के पोर,
::गो-स्तन खींच लाये,
::बँधे धेनु-किशोर का
::अधिकार लूट, उलीच लाये।
 
::दूध की धारा मृदंगिनि
::जन्म का स्वर रुदन बोली
::कंकणों की मधुर ध्वनि ने
::वलय-मयी मिठास घोलीघोली। 
::विवश उनकी रात की
::बाँधी, उसाँसें छूटती थीं
::दूध की हर बूँद पर, तड़पन
::लिये थी, टूटती थी।
 
::और माटी की मटकिया
::गोद पर ’घन’ सी बनी थी,
::मधुर उजले प्राण भर कर
::प्रणय के मन-सी बनी थी।
 
::वन्य-टेकड़ियाँ छहर
::दुग्धायमान गुँजार करतीं,
::विश्व-बालक को पिलाने::दुग्ध-पारावार भरतीं। ::उषा का उजला अँधेरा::तारकों का रूप लेकर::दूध की हर बूँद पर::कुर्बान था, तारुण्य देकर।
::दूर पर ठहरे बिना वह
::विन्ध्य झरना झर रहा था,
::मथनियों के बिन्दु-शिशु-मुख
::बोल अपने भर रहा था।
गगन से भूलोक तक यह
::अमृत-धारा बह रही थी।
गो-स्तनों पर घूमने वाली
:::अँगुलियाँ कह रही थीं!
'''रचनाकाल: प्रताप प्रेसपातलपानी, कानपुरविन्ध्य-निवास में-१९४४
</poem>
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