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तुमने पावन कर, मुक्त किये
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!
::सुख-भोग खोजने आते सब,::आये तुम करने सत्य खोज,::जग की मिट्टी के पुतले जन,::तुम आत्मा के, मन के मनोज!::जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर::चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,::पशुता का पंकज बना दिया::तुमने मानवता का सरोज!पशु-बल की कारा से जग कोदिखलाई आत्मा की विमुक्ति,विद्वेष, घृणा से लड़ने कोसिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थतुमने विचार-परिणीत उक्ति,विश्वानुरक्त हे अनासक्त!सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!
'''रचनाकाल: मई’१९३५'''
</poem>
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