भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
 
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
 +
}}
 +
{{KKPustak
 +
|चित्र=बंगाल का काल.gif
 +
|नाम=बंगाल का काल
 +
|रचनाकार=[[हरिवंशराय बच्चन]]
 +
|प्रकाशक=भारती-भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद
 +
|वर्ष=मार्च, १९४६
 +
|भाषा=हिन्दी
 +
|विषय=कविता
 +
|शैली=लम्बी कविता
 +
|पृष्ठ=८१
 +
|ISBN=
 +
|विविध=
 
}}
 
}}
  
 
+
* [[बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / भाग-१]]
पड़ गया बंगाल में काल,
+
 
+
भरी कंगालों से धरती,
+
 
+
भरी कंकालों से धरती!
+
 
+
 
+
क्‍या कहा?
+
 
+
कहाँ पड़ गया काल,
+
 
+
कहाँ कंगाल,
+
 
+
कहाँ कंकाल,
+
 
+
क्‍या कहा, कालत्रस्‍त बंगाल!
+
 
+
 
+
वही बंगाल-
+
 
+
जिस पर सजल घनों की
+
 
+
छाया में लह-लह लहराते
+
 
+
खेत धान के दूर-दूर तक,
+
 
+
जहाँ कहीं भी गति नयनों की।
+
 
+
 
+
जिस पर फैले नदी-सरोवर,
+
 
+
नद-नाले वर,
+
 
+
निर्मल निर्झर
+
 
+
सिंचित करते वसुंधरा का
+
 
+
आँगन उर्वर।
+
 
+
जिसमें उगते-बढ़ते तरुवर,
+
 
+
लदे दलों से,
+
 
+
फँदे फलों से,
+
 
+
सजे कली-कली कुसुमों से सुन्‍दर।
+
 
+
 
+
वहीं बंगाल-
+
 
+
देख जिसे पुलकित नेत्रों से
+
 
+
भरे कंठ से,
+
 
+
गद्गद् स्‍वर से
+
 
+
कवि ने गया राष्‍ट्र गान वह-
+
 
+
वन्‍दे मातरम्,
+
 
+
सुजलम्, सुफलम्, मलयज शीतलम्,
+
 
+
शस्‍य श्‍यमलाम्, मातरम्।...
+
 
+
 
+
वहीं बंगाल-
+
 
+
जिसकी एक साँस ने भर दी
+
 
+
मेरे देश में जान,
+
 
+
आत्‍म सम्‍मान,
+
 
+
आजादी की आन,
+
 
+
आज,
+
 
+
काल की गति भी कैसी, हाय,
+
 
+
स्‍वयं असहाय,
+
 
+
स्‍वयं निरुपाय,
+
 
+
स्‍वयं निष्‍प्राण,
+
 
+
मृत्‍यु के भुख से होकर ग्रस,
+
 
+
गिन रहा है जीवन की साँस-साँस।
+
 
+
 
+
हे कवि, तेरे अमर गान की
+
 
+
सुजला, सुफला,
+
 
+
मलय गंधिता
+
 
+
शस्‍य श्‍यामला,
+
 
+
फुल्‍ल कुसुमिता,
+
 
+
द्रुम सुसज्जिता,
+
 
+
चिर सुहासिनी,
+
 
+
मधुर भाषिणी,
+
 
+
धरणी भरणी,
+
 
+
जगत वन्दिता
+
 
+
बंग भूमी अब नहीं रही वह!बंग भूमी अब
+
 
+
शस्‍य हीन है,
+
 
+
दीन क्षीण है,
+
 
+
चिर मलीन है,
+
 
+
भरणी आज हो गई है हरणी;
+
 
+
जल दे, फल दे और अन्‍न दे
+
 
+
जो करती थी जीव दान,
+
 
+
मरघट-सा अब रुप बनाकर
+
 
+
अजगर-सा अब मुँह फैलाकर
+
 
+
खा लेती अपनी संतान!
+
 
+
 
+
बोल बंग की वीर मेदिनी,
+
 
+
अब वह तेरी आग कहाँ है,
+
 
+
आज़ादी का राग कहाँ है,
+
 
+
लगन कहाँ है, लाग कहाँ है!
+
 
+
 
+
बोल बंग के वीर मेदिनी,
+
 
+
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
+
 
+
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
+
 
+
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं! 
+
 
+
 
+
बंकिम ने गर्वोन्‍नत ग्रीवा
+
 
+
उठा विश्‍व से
+
 
+
था यह पूछा,
+
 
+
'के बले मा, तुमि अबले?'
+
 
+
 
+
मैं कहता हूँ,
+
 
+
तू अबला है।
+
 
+
तू होती, मा,
+
 
+
अगर न निर्बल,
+
 
+
अगर न दुर्बल,
+
 
+
तो तेरे यह लक्-लक्ष सुत
+
 
+
वंचित रहकर उसी अन्‍न से,
+
 
+
उसी धान्‍य से
+
 
+
जिस पर है अधिकार इन्‍हीं का,
+
 
+
क्‍यों कि इन्‍होंने अपने श्रम से
+
 
+
जोता, बोया,
+
 
+
इसे उगाया,
+
 
+
सींच स्‍वेद से
+
 
+
इसे बढ़ाया,
+
 
+
काटा, मारा, ढोया,
+
 
+
भूख-भूख कर,
+
 
+
सूख-सूखकर,
+
 
+
पंजर-पंजर,
+
 
+
गिर धरती पर,
+
 
+
यों न तोड़ देते अपना दम
+
 
+
और नपुंसक मृत्‍यु न मरते।
+
 
+
भूखे बंग देश के वासी!
+
 
+
 
+
छाई है मुरदनी मुखों पर,
+
 
+
आँखों में है धँसी उदासी;
+
 
+
विपद् ग्रस्‍त हो,
+
 
+
क्षुधा त्रस्‍त हो,
+
 
+
चारों ओर भटके फिरते,
+
 
+
लस्‍त-पस्‍त हो
+
 
+
ऊपर को तुम हाथ उठाते।
+
 
+
 
+
मुझसे सुन लो,
+
 
+
नहीं स्‍वर्ग से अन्‍न गिरेगा,
+
 
+
नहीं गिरेगी नभ से रोटी;
+
 
+
किन्‍तु समझ लो,
+
 
+
इस दुनिया की प्रति रोटी में,
+
 
+
इस दुनिया के हर दाने में,
+
 
+
एक तुम्‍हारा भाग लगा है,
+
 
+
एक तुम्‍हारा निश्चित हिस्‍सा,
+
 
+
उसे बँटाने,
+
 
+
उसको लेने,
+
 
+
उसे छिनने,
+
 
+
औ' अपनाने,
+
 
+
को जो कुछ भी तुम करते हो,
+
 
+
सब कुछ जायज,
+
 
+
सब कुछ रायज।
+
 
+
 
+
नए जगत में आँखें खालों,
+
 
+
नए जगगत की चालें देखों,
+
 
+
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
+
 
+
ठोकर खाकर तो कुछ सीखों,
+
 
+
और भुलाओ पाठ पुराने।
+
 
+
 
+
मन से अब संतोष हटाओ,
+
 
+
असंतोष का नाद उठाओ,
+
 
+
करो क्रांति का नारा ऊँचा,
+
 
+
भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,
+
 
+
और भूख की ताकत समझो,
+
 
+
हिम्‍मत समझो,
+
 
+
जुर्रत समझो,
+
 
+
कूबत समझो;
+
 
+
देखो कौन तुम्‍हारे आगे
+
 
+
नहीं झुका देता सिर अपना।
+
 
+
 
+
हमें भूख का अर्थ बताना,
+
 
+
भूखों, इसको आज समझ लो,
+
 
+
मरने का यह नहीं बहाना!
+
 
+
 
+
फिर से जीवित,
+
 
+
फिर से जाग्रतत,
+
 
+
फिर से उन्‍नत
+
 
+
होने का है भूख निमंत्रण,
+
 
+
है आवाहन।
+
 
+
 
+
भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,
+
 
+
भूख सबल है,
+
 
+
भूख प्रबल हे,
+
 
+
भूख अटल है,
+
 
+
भूख कालिका है, काली है;
+
 
+
या काली सर्व भूतेषु
+
 
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
 
+
नमस्‍तसै, नमस्‍तसै,
+
 
+
नमस्‍तसै नमोनम:!
+
 
+
भूख प्रचंड शक्तिशाली है;
+
 
+
या चंडी सर्व भूतेषु
+
 
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
 
+
नमस्‍तसै, नमस्‍तसै,
+
 
+
नमस्‍तसै नमोनम:!
+
 
+
भूख्‍ा अखंड शौर्यशाली है;
+
 
+
या देवी सर्व भूतेषु
+
 
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
 
+
नमस्‍तसै, नमस्‍तसै, नमस्‍तसै नमोनम:!
+
 
+
 
+
भूख भवानी भयावनी है,
+
 
+
अगणित पद, मुख, कर वाली है,
+
 
+
बड़े विशाल उदारवाली है।
+
 
+
भूख धरा पर जब चलती है
+
 
+
वह डगमग-डगमग हिलती है।
+
 
+
वह अन्‍याय चबा जाती है,
+
 
+
अन्‍यायी को खा जाती है,
+
 
+
और निगल जाती है पल में
+
 
+
आतताइयों का दु:शासन,
+
 
+
हड़प चुकी अब तक कितने ही
+
 
+
अत्‍याचारी सम्राटों के
+
 
+
छत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!
+

17:08, 23 दिसम्बर 2009 का अवतरण

बंगाल का काल
बंगाल का काल.gif
रचनाकार हरिवंशराय बच्चन
प्रकाशक भारती-भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद
वर्ष मार्च, १९४६
भाषा हिन्दी
विषय कविता
विधा लम्बी कविता
पृष्ठ ८१
ISBN
विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।