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"निंदिया / शैलेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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पास देख अनजान अतिथि को--
 
पास देख अनजान अतिथि को--
 
 
दबे पांव दरवाज़े तक आ,
 
दबे पांव दरवाज़े तक आ,
 
 
लौट गई निंदिया शर्मीली!
 
लौट गई निंदिया शर्मीली!
 
  
 
दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है?
 
दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है?
 
 
कब आएं बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
 
कब आएं बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
 
 
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
 
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
 
 
शून्य रात की घड़ियां आधी
 
शून्य रात की घड़ियां आधी
 
 
और झांक खिड़की से जब तब
 
और झांक खिड़की से जब तब
 
 
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली!
 
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली!
 
  
 
रजनी घूम चुकी है, सूने जग का
 
रजनी घूम चुकी है, सूने जग का
 
 
थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का
 
थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का
 
 
कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता
 
कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता
 
 
आजा निंदिया, अब तो आजा!
 
आजा निंदिया, अब तो आजा!
 
 
किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली!
 
किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली!
  
 
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'''1945 में रचित
1945 में रचित
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10:28, 29 दिसम्बर 2009 का अवतरण

पास देख अनजान अतिथि को--
दबे पांव दरवाज़े तक आ,
लौट गई निंदिया शर्मीली!

दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है?
कब आएं बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
शून्य रात की घड़ियां आधी
और झांक खिड़की से जब तब
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली!

रजनी घूम चुकी है, सूने जग का
थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का
कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता
आजा निंदिया, अब तो आजा!
किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली!

1945 में रचित