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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पहले की तरह<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''मध्य निशा का गीत<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अनिल जनविजय]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[नरेन्द्र शर्मा]]</td>
 
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पहुँच अचानक उस ने मेरे घर पर
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    तुम उसे उर से लगा स्वर साधतीं--
लाड़ भरे स्वर में कहा ठहर कर
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"अरे... सब-कुछ पहले जैसा है
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सब वैसा का वैसा है...
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पहले की तरह..."
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फिर शांत नज़र से उस ने मुझे घूरा
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उठते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!
लेकिन कहीं कुछ रह गया अधूरा
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उदास नज़र से मैं ने उसे ताका
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        मूक होती कथा मेरी,
फिर उस की आँखों में झाँका
+
        शून्य होती व्यथा मेरी,
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        चीर निशि-निस्तब्धता जो,
  
मुस्काई वह, फिर चहकी चिड़िया-सी
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तीर-से आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!
हँसी ज़ोर से किसी बहकी गुड़िया-सी
+
  
चूमा उस ने मुझे, फिर सिर को दिया खम
+
        चाँद भी पिछले पहर का,
बरसों के बाद इस तरह मिले हम
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        मुग्ध हो जाता, ठहराता!
पहले की तरह</pre>
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        क्या विदा-बेला न टलती
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यदि कहीं आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?
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        बनी रहती चाँदनी भी
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        गगन की हीरक-कनी भी
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        ओस बन आती अवनि पर
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चाँदनी, सुनकर सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?
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        रुद्ध प्राणों को रुलाते,
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        आज बाहर खींच लाते
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        निमिष में अंगार उर-सा
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सूर्य, यदि आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?
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13:33, 2 जनवरी 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: मध्य निशा का गीत
  रचनाकार: नरेन्द्र शर्मा
    तुम उसे उर से लगा स्वर साधतीं--

उठते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!

        मूक होती कथा मेरी,
        शून्य होती व्यथा मेरी,
        चीर निशि-निस्तब्धता जो,

तीर-से आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!

        चाँद भी पिछले पहर का,
        मुग्ध हो जाता, ठहराता!
        क्या विदा-बेला न टलती

यदि कहीं आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?

        बनी रहती चाँदनी भी
        गगन की हीरक-कनी भी
        ओस बन आती अवनि पर

चाँदनी, सुनकर सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?

        रुद्ध प्राणों को रुलाते,
        आज बाहर खींच लाते
        निमिष में अंगार उर-सा

सूर्य, यदि आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?