Changes

{{KKCatKavita}}
<poem>
आगे जीवन की सन्ध्या है, देखें क्या हो आली?
तू कहती है--’चन्द्रोदय ही, काली में उजियाली’?
सिर-आँखों पर क्यों न कुमुदिनी लेगी वह पदलाली?
किन्तु करेंगे कोक-शोक की तारे जो रखवाली?
’फिर प्रभात होगा’ क्या सचमुच? तो कृतार्थ यह चेरी।
जीवन के पहले प्रभात में आँख खुली जब मेरी।
:सखि, विहग उड़ा दे, हों सभी मुक्तिमानी,
:सुन शठ शुक-वाणी-’हाय! रूठो न रानी!’
:खग, जनकपुरी की ब्याह दूँ सारिका मैं?
:तदपि यह वहीं की त्यक्त हूँ दारिका मैं!
:कह विहग, कहाँ हैं आज आचार्य तेरे?
:विकच वदन वाले वे कृती कान्त मेरे?
:सचमुच ’मृगया में’? तो अहेरी नये वे,
:यह हत हरिणी क्यों छोड़ यों ही गये वे?
निहार सखि, सारिका कुछ कहे बिना शान्त-सी,
दिये श्रवण है यहीं, इधर मैं हुई भ्रान्त-सी।
इसे पिशुन जान तू, सुन सुभाषिणी है बनी--
’धरो!’ खगि, किसे धरूँ? धृति लिये गये हैं घनी।
 
 
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits