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सिन्दूर / नीलेश रघुवंशी

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|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
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छोटी-सी डिबिया में बन्द सिन्दूर
 
तुम आओ और
 
सजाओ मेरी बहन की मांग
 
बनो उसके उजियारे
 
बनकर उजियारे चहकाओ उसे
 
अटको उसकी मांग में
 
अटकते हैं जैसे आँसू मेरी आँख के।
 
सिन्दूर आओ
 
तेरह बरस से सूने पड़े घर में
 
बजवाओ शहनाई
 
बंधवाओ बंदनवार
 
चमकाओ सूने पड़े कलश
 
आओ और
 
गुँजा दो घर को मंगल-गीतों से
 
तुम्हारा रंग जो है उगते सूरज का
 
छोड़ दो उसे बहन के आर-पार।
 
छोटी-सी डिबिया में बन्द सिन्दूर
 
नहीं जानते तुम अपना मूल्य
 
जाना है हम सबने लम्बी प्रतीक्षा के बाद।
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