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किताब / नीलेश रघुवंशी

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|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>प्रकाशको, तुम ! कम करो किताबों का दाम 
किताबें नहीं हैं महँगी शराब
 
पालो अपने अंदर इच्छा
 
दौड़ पड़ें बच्चे किताबों के पीछे
 दौड़ते हैं जैसे तितनी तितली पकड़ने को । 
मैं रखना चाहती हूँ
 
किताब को उतने ही पास
 
जितने नज़दीक रहते हैं मेरे सपने
 
किताबो, तुम साथ रहो
 
हमारी अधूरी इच्छाओं के
 
कहीं सिक्कों के जाल में
 
गुम न हो जाये इच्छाओं का अकेलापन ।
 
मैं उपहार में देना चाहती हूँ किताबें उन्हें
 
जो होते-होते मेरे छिप गए
 
लुका-छिपी के खेल में-
 
उन्हें भी एक किताब
 
जो हो नहीं सके मेरे कभी
 
बाईस बरस की इस ज़िंदगी में
 लिख नहीं सकी एक किताब पर भी अपना नाम । 
ओ महँगी किताबो
 
तुम थोड़ी सस्ती हो जाओ
 
मैं उतरना चाहती हूँ
 
तुम्हारी इस रहस्यमयी दुनिया में ।
   तब भी तुम  गए भी तो आँधी की तरह मैं बची रही लौ की तरह तब भी ।</poem>
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