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द्विधा-रहित अपलक नयनों की
भूख-भरी दर्शन की प्यास प्यास।
देवकामिनी के नयनों से जहाँ
नील नलिनों की सृष्टि -
होती थी, अब वहाँ हो रही
या जलधर उठे क्षितिज-तट के
सघन गगन में भीमप्रकंपनभीम प्रकंपन,
झंझा के चलते झटके।
सबल तरंगाघातों से
उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी -
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी
बढने बढ़ने लगा विलास-वेग सा
वह अतिभैरव जल-संघात,
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,
ज्योतिरिगणोंज्योतिर्गणों-से जगते।
अरे पुरातन अमृत अगतिमय
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद अवसाद।
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