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दोहे / आनंद कृष्ण
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20:05, 1 मई 2010
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ।
क्षीणकाय निर्बल नदी,
पडी
पड़ी
रेट की सेज"आँचल में जल नहीं-" इस,
पीडा
पीड़ा
से लबरेज़।
दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण.
अनिल जनविजय
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