"खिड़की से / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
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क्षुद्र आत्म-पर भूल, भूत सब हुए समन्वित, | क्षुद्र आत्म-पर भूल, भूत सब हुए समन्वित, | ||
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मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित? | मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित? | ||
ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूढ़, विभाजित!! | ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूढ़, विभाजित!! |
15:57, 4 मई 2010 का अवतरण
पूस: निशा का प्रथम प्रहर: खिड़की से बाहर
दूर क्षितिज तक स्तब्ध आम्र वन सोया: क्षण भर
दिन का भ्रम होता: पूनो ने तृण तरुओं पर
चाँदी मढ़ दी है, भू को स्वप्नों से जड़कर!
चारु चंद्रिकातप से पुलकित निखिल धरातल
चमक रहा है, ज्यों जल में बिम्बित जग उज्वल!
स्पष्ट दीखते,--खिड़की की जाली में विजड़ित
कटहल, लीची, आम,--घूक गेंदुर से कंपित;
फाटक औ हाते के खंभे, बगिया के पथ,
आधी जगत कुँए की, कुरिया की छाजन श्लथ;
अस्पताल का भाग, मेहराबें, दरवाज़े,
स्फटिक सदृश जो चमक रहे चूने से ताज़े।
औ’,--टेढ़ी मेढ़ी दिगंत रेखा के ऊपर
पास पास दो पेड़ ताड़ के खड़े मनोहर!
आधी खिड़की पर अगणित ताराओं से स्मित
हरित धरा के ऊपर नीलांबर छायांकित।
कचपचिया (कृत्तिका) सामने शोभित सुंदर
मोती के गुच्छे सी: भरणी ज्यों त्रिकोण वर!
पास रोहिणी, प्रिय मिलनातुर, बाँह खोलकर,
सेंदुर की बेंदी दे, जुड़ुओं को गोदी भर।
लुब्ध दृष्टि लुब्धक, समीप ही, छोड़ रहा शर
आदि काल से मृग पर: मृग शिर सहज मनोहर!
उधर जड़े पुखराज लाल-से गुरु औ मंगल
साथ साथ, जिनमें अवश्य गुरु सबसे उज्वल!
हस्ता है प्रत्यक्ष: कठिन वृश्चिक का मिलना,
वह शायद आर्द्रा, कहता हिमजल सा हिलना।
ज्योति फेन सी स्वर्गंगा नभ बीच तरंगित,
परियों की माया सरसी सी छायालोकित;
ज्वलित पुंज ताराओं के वाष्पों से सस्मित,
नीलम के नभ में रत्नक प्रभ पुल सी निर्मित।
खोज रहा हूँ कहाँ उदित सप्तर्षि गगन में
अरुंधती को लिए साथ, विस्मित-से मन में!
प्रश्न चिह्न-से जो अनादि से नभ में अंकित,
उत्तर में स्थिर ध्रुव की ओर किए चिर इंगित,
पूछ रहे हों संसृति का रहस्य ज्यों अविदित,--
'क्या है वह ध्रुव सत्य? गहन नभ जिससे ज्योतित!'
ज्योत्सना में विकसित सहस्रदल-भू पर, अंबर
शोभित ज्यों लावण्य स्वप्न अपलक नयनों पर!
यह प्रतिदिन का दृश्य नहीं, छल से वातायन
आज खुल गया अप्सरियों के जग में मोहन!
चिर परिचित माया बल से बन गए अपरिचित,
निखिल वास्तविक जगत कल्पना से ज्यों चित्रित!
आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल!
सब कुछ सुंदर ही सुंदर, उज्वल ही उज्वल!
एक शक्ति से, कहते, जग प्रपंच यह विकसित,
एक ज्योति कर से समस्त जड़ चेतन निर्मित;
सच है यह: आलोक पाश में बँधे चराचर
आज आदि कारण की ओर खींचते अंतर!
क्षुद्र आत्म-पर भूल, भूत सब हुए समन्वित,
तृण, तरु से तारालि--सत्य है एक अखंडित!
मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित?
ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूढ़, विभाजित!!
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९