"चींटियाँ / अशोक तिवारी" के अवतरणों में अंतर
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कतारबद्ध चींटियाँ | कतारबद्ध चींटियाँ | ||
− | ढो रही हैं अपने घर का साजो सामान | + | ढो रही हैं अपने घर का साजो-सामान |
एक नए घर में | एक नए घर में | ||
आशा और उम्मीद के साथ | आशा और उम्मीद के साथ | ||
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विस्थापित होती हुई चींटियाँ | विस्थापित होती हुई चींटियाँ | ||
चल देती हैं नए ठिए कि तलाश में | चल देती हैं नए ठिए कि तलाश में | ||
− | किसी भी शिकवा शिकायत के | + | किसी भी शिकवा शिकायत के बग़ैर |
पुराने घर की दीवारों से गले लगकर | पुराने घर की दीवारों से गले लगकर | ||
रोती हैं चींटियाँ | रोती हैं चींटियाँ | ||
− | बहाती नहीं हैं पर | + | बहाती नहीं हैं पर आँसू |
दिखाती नहीं हैं आक्रोश | दिखाती नहीं हैं आक्रोश | ||
प्रकट नहीं करती हैं गुस्सा | प्रकट नहीं करती हैं गुस्सा | ||
जानती हैं फिर भी प्रतिरोध की ताक़त | जानती हैं फिर भी प्रतिरोध की ताक़त | ||
− | मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की | + | मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगँध |
− | + | सूँघती हैं चींटियाँ | |
सीखा नहीं है उन्होंने | सीखा नहीं है उन्होंने | ||
हताश होना | हताश होना | ||
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चलते रहने के लिए | चलते रहने के लिए | ||
बढ़ने के लिए आगे ही आगे | बढ़ने के लिए आगे ही आगे | ||
− | पढ़ती हुई हर | + | पढ़ती हुई हर ख़तरे को |
जूझती हैं चींटियाँ | जूझती हैं चींटियाँ | ||
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मुठ्ठियों की ताक़त को एक साथ!! | मुठ्ठियों की ताक़त को एक साथ!! | ||
− | रचनाकाल : 5 सितम्बर, 2003 | + | '''रचनाकाल : 5 सितम्बर, 2003''' |
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20:56, 5 मई 2010 का अवतरण
चढ़ रही हैं लगातार
दीवार पर बार-बार
आ रही हैं
जा रहीं हैं
कतारबद्ध चींटियाँ
ढो रही हैं अपने घर का साजो-सामान
एक नए घर में
आशा और उम्मीद के साथ
गाती हुई
ज़िन्दगी का खूबसूरत तराना
इकट्ठी करती हुई
ज़रुरत की छोटी से छोटी
और बड़ी से बड़ी चीज़
बनाती हुई गति और लय को
अपनी जिंदगी का एक खास हिस्सा
अपने घर से
विस्थापित होती हुई चींटियाँ
चल देती हैं नए ठिए कि तलाश में
किसी भी शिकवा शिकायत के बग़ैर
पुराने घर की दीवारों से गले लगकर
रोती हैं चींटियाँ
बहाती नहीं हैं पर आँसू
दिखाती नहीं हैं आक्रोश
प्रकट नहीं करती हैं गुस्सा
जानती हैं फिर भी प्रतिरोध की ताक़त
मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगँध
सूँघती हैं चींटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने
हताश होना
ठहरना कभी
मुश्किल से मुश्किल समय में भी
उखड़ती नहीं है उनकी साँस
मसल दिए जाने के बाद भी
उठ खड़ी होती हैं चींटियाँ
लगे होते हैं उनके पैरों में डायनमो
चलते रहने के लिए
बढ़ने के लिए आगे ही आगे
पढ़ती हुई हर ख़तरे को
जूझती हैं चींटियाँ
जानती हैं वो आज़माना
मुठ्ठियों की ताक़त को एक साथ!!
रचनाकाल : 5 सितम्बर, 2003