"अर्थी सजाने वाले / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर
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02:42, 13 मई 2010 के समय का अवतरण
अपने जीते जी संभव नहीं जिस दृश्य को देख पाना
उस दृश्य में उपस्थित हैं वे
जो भीड़ में दिखाई देते हुए भी भीड़ से अलग हैं
वे सिर्फ जनाजे को कंधा लगाने नहीं आए हैं
अर्थी सजाने की कला में भी वे माहिर हैं
कला इस मायने में कि बाँस इस तरह बाँधे जाएँ
कि अर्थी मज़बूत भी हो और उठाने में सुविधाजनक
देह जिस पर अपने पूरे आकार में आ जाए
साँसों की डोर का टूटना तो एक दिन निश्चित था
बस अर्थी में बँधी रस्सी बीच में न टूट पाए
गनीमत कि इस कला को लेकर कहीं कोई बहस नहीं है
कोई गुमान भी नहीं अर्थी सजाने वालों के जेहन में
वे इसे कला कहने को कोई औचित्य भी नहीं मानते
मृत्यु की भयावहता से आतंकित होकर भी
अपने प्रकट रूप में वे भयाक्रांत नहीं होते
सामाजिक के प्रचलित अर्थ में असामाजिक भी नहीं
भावना और व्यवहार की आती-जाती लहरों के बीच
संयत होकर निर्वाह करते अपने धर्म का
स्त्रियों को रोता देखकर भी वे नहीं रोते
भौतिक जगत से मनुष्य की विदाई के इस अवसर पर
जहाँ आयु से अधिक मुखर होता है अनुभव
उनकी क्रियाओं में अभिव्यक्त होता है उनका ज्ञान
वे जानते हैं अग्निसंस्कार के लिए
किस मौसम में कितनी लकड़ियाँ पर्याप्त होंगी
उन्हें कैसे जमाएँ कि एक बार में आग पकड़ ले
देह को कब्र में उतारकर पटिये कैसे जमाएँ
खाली बोरे, इत्र, राल, फूल, हंडिया, घी, लोबान
कफन-दफन का हर सामान वे जुटाते हैं
अर्थी उठने से पहले याद से कंडे सुलगाते हैं
अर्थी सजाकर वे आवाज देते हैं
मृतक के बेटे, भाई, पति या पिता को
उन्हें पता है अर्थी सजाने की जिम्मेदारी भले उनकी हो
कंधा लगाने का पहला हक सगों का है
उनके सामान्य ज्ञान में कहीं नहीं है शामिल
दुनिया के पहले इंसान की क़ब्र का कोई जिक्र
उन्हें नहीं पता अंतिम संस्कार की परम्परा
किस धर्म में कब दाखिल हुई
क्या होता था मनुष्य की मृत देह का
जब उसका कोई धर्म नहीं था
मोक्ष, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, जन्नत-जहन्नुम जैसे शब्द
दाढ़ी-चोटी वालों के शब्द-कोष में सुरक्षित जानकर
वे चुपचाप सुनते हैं श्मशान के शांत में
मृतक के व्यक्तित्व और क्रिया-कलापों का बखान
कर्मकांड पर चल रही असमाप्त बहस से अलग
उनके संतोष में विद्यमान रहता है एक अनूठा विचार
चलो... मिट्टी ख़राब नहीं हुई आदमी की।