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|रचनाकार=बेढब बनारसी
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<poem>1. वन्दना
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शारदे आज यह वर दे
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नैनों से भी तीखीतर हो
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शिशुओं सी सर्वथा निडर हो
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व्यंग-विनोद- हास का घर हो
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तुझसी ही हे देवि अमर हो
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इस निब-वालीको मैं जैसा चाहूँ -- वैसा कर दे
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इसमें रंग भरा हो काला
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किन्तु जगत में करे उजाला
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जहाँ बनज हो रोनेवाला
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वहाँ गिरे यह बनकर पाला
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फाड़े यह पाखण्ड -- दंभके  ताने हुए जो परदे
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जैसी टेढ़ी अलकें काली
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मानों ऐंठी कोई ब्याली
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हो यह टेढ़े शब्दों वाली
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किन्तु नहीं हो विष की प्याली
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इससे सुधा-बूँद बरसा अधरों पर सबके धर दे
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भरा रहे रत्नाकर इसमें
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रसका  भर दे सागर इसमें
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पाएँ लोग चराचर इसमें
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मस्ती के हो आखर इसमें
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जग को करदे मादक, इसमें वह मादकता  भर दे
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चूमे क्षितिज और अंबरको
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नक्षत्रों के लोक प्रवरको
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करै पराजित यह निर्झर को 
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छूले मानव के अन्तर को
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उड़े कल्पना के समीर पर इसको ऐसा करदे
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मूर्ख मनुज की वाह-वाह से
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बिना ह्रदयवाली निगाह से
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पैसों की स्वादिष्ट चाह से 
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इन तीनों सागर अथाह से
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इक्यावन नम्बरवाली यह पार पारकर कर दे
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02:36, 22 मई 2010 के समय का अवतरण