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शत-शत तारा मंडित अनंत,
कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,
हँसता ऊपर का विश्व मधुर,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
 
बहती माया सरिता ऊपर,
 
उठती किरणों की लोल लहर,
 
निचले स्तर पर छाया दुरंत,
 
आती चुपके, जाती तुरंत।
 
 
सरिता का वह एकांत कूल,
 
था पवन हिंडोले रहा झूल,
 
धीरे-धीरे लहरों का दल,
 
तट से टकरा होता ओझल,
 
 
छप-छप का होता शब्द विरल,
 
थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल
 
संसृति अपने में रही भूल,
 
वह गंध-विधुर अम्लान फूल।
 
 
तब सरस्वती-सा फेंक साँस,
 
श्रद्धा ने देखा आस-पास,
 
थे चमक रहे दो फूल नयन,
 
ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,
 
 
वह क्या तम में करता सनसन?
 
धारा का ही क्या यह निस्वन
 
ना, गुहा लतावृत एक पास,
 
कोई जीवित ले रहा साँस।
 
 
 
 
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