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[[Category:गीत]]
 <poem>
लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,
 राजमार्ग भी, पगडंडी से ज्यादा संकरे सँकरे हैं ।    
हर उपसर्ग हाथ मलता है प्रत्यय झूठे हैं,
 
पता नहीं हैं, औषधियों को दर्द अनूठे हैं,
 
आँखें मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं ।
   पेड़ धुएं धुएँ का लहराता है अँधियारों जैसा,  
है भविष्य भी बीते दिन के गलियारों जैसा
 
आँखों निचुड़ रहे से उजियारों के कतरे हैं ।
 
 
 
उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं,
 
देख मज़ारों को हम शीश झुकाया करते हैं,
 
सही बात कहने के सुख के अपने ख़तरे हैं ।
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