"नीम के दो पेड़ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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+ | शेष भाग जल्द ही टंकित कर दी जाएगी। |
09:59, 13 जून 2010 का अवतरण
"तुम न समझोगे,
शहर से आ रहे हो,
हम गँवारों की गँवारी बात।
श्हर,
जिसमें हैं मदरसे और कालिज
ज्ञान मद से झुमते उस्ताद जिनमें
नित नई से नई,
मोटी पुस्तकें पढ़ते, पढ़ाते,
और लड़के घोटते, रटते उन्हे नित;
ज्ञान ऐसा रत्न ही है,
जो बिना मेहनत, मशक्क़त
मिल नहीं सकता किसी को।
फिर वहाँ विज्ञान-बिजली का उजाला
जो कि हरता बुद्धि पर छाया अँधेरा,
रात को भी दिन बनाता।
दस तरह का ज्ञान औ' विज्ञान
पच्छिम की सुनहरी सभ्यता का
क़ीमती वरदान है
जो तुम्हारे बड़े शहरों में
इकट्ठा हो गया है।
और तुम कहते के दुर्भाग्य है जो
गाँव में पहुँचा नहीं है;
और हम अपने गँवारपन में समझते,
ख़ैरियत है, गाँव इनसे बच गए हैं।
सहज में जो ज्ञान मिल जाए
हमारा धन वही है,
सहज में विश्वास जिस पर टिक रहे
पूँजी हमारी;
बुद्धि की आँखें हमारी बंद रहतीं;
पर हृदय का नेत्र जब-तक खोलते हम,-
और इनके बल युगों से
हम चले आए युगों तक
हम चले जाते रहेंगे।
और यह भी है सहज विश्वास,
सहजज्ञान,
सहजानुभूति,
कारण पूछना मत।
इस तरह से है यहाँ विख्यात
मैंने यह लड़कपन में सुना था,
और मेरे बाप को भी लड़कपन में
बताया गया था,
बाबा लड़कपन में बड़ों से सुन चुके थे,
और अपने पुत्र को मैंने बताया है
कि तुलसीदास आए थे यहाँ पर,
तीर्थ-यात्रा के लिए निकले हुए थे,
पाँव नंगे,
वृद्ध थे वे किंतु पैदल जा रहे थे,
हो गई थी रात,
ठहरे थे कुएँ परी,
एक साधू की यहाँ पर झोंपड़ी थी,
फलाहारी थे, धरा पर लेटते थे,
और बस्ती में कभी जाते नहीं थे,
रात से ज्यादा कहीं रुकते नहीं थे,
उस समय वे राम का वनवास
लिखने में लगे थे।
रात बीते
उठे ब्राह्म मुहूर्त में,
नित्यक्रिया की,
चीर दाँतन जीभ छीली,
और उसके टूक दो खोंसे धरणि में;
और कुछ दिन बाद उनसे
नीम के दो पेड़ निकले,
साथ-साथ बड़े हुए,
नभ से उठे औ'
उस समय से
आज के दिन तक खड़े हैं।"
मैं लड़कपन में
पिता के साथ
उस थल पर गया था।
यह कथन सुनकर पिता ने
उस जगह को सिर नवाया
और कुछ संदेह से कुछ, व्यंग्य से
मैं मुसकराया।
शेष भाग जल्द ही टंकित कर दी जाएगी।