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काँच की सुर्ख़ चूड़ी / परवीन शाकिर
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11:26, 14 जून 2010
<poem>
काँच की सुर्ख़ चूड़ी
मेरे हाथ
मेम
में
आज ऐसे
कनकने
खनकने
लगी है
जैसे कल रात शबनम में लिक्खी हुई
तेरे हाथ की शोख़ियों को
हवाओं ने सुर दे दिया हो
<poem>
अनिल जनविजय
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