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"हाइकु कविताएँ / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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रोयेगी मानवता
 
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हँसगे गिद्ध।
 
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कुछ कम हो  
 
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शायद ये कुहासा
 
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यही प्रत्याशा।
 
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चींटी बने हो  
 
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रौंदे तो जाआगे ही
 
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रोना धोना क्यों?
 
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सूर्य के पाँव
 
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चूमकर सो गए
 
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गाँव के गाँव।
 
गाँव के गाँव।
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यूँ ही न बहो
 
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पर्वत–सा ठहरो
 
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मन की कहो।
 
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पतंग उड़ी  
 
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डोर कटी‚ बिछुड़ी
 
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फिर न मिली।
 
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धूप के पाँव  
 
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झेलेगा कब तक
 
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तम के दंश।
 
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क्यों तू उदास
 
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दूब अभी है ज़िन्दा  
 
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पिक कूकेगा ।
 
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शहरी चक्की
 
शहरी चक्की
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फुदकती गौरैया
 
फुदकती गौरैया
 
शुभ नहीं ये।
 
शुभ नहीं ये।
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लोक रोपता
 
लोक रोपता
 
महाकाव्य की पौध
 
महाकाव्य की पौध
 
लुनता कवि।
 
लुनता कवि।
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बादल रोया
 
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धरती भी उमगी
 
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फसल उगी।
 
फसल उगी।
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स्वागत हुआ
 
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दूब–धान आया
 
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लोक जीवन।
 
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मरने न दो
 
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परम्पराओं को कभी
 
परम्पराओं को कभी
 
बचोगे तभी।
 
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बिना धुरी के
 
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घूम रही है चक्की
 
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पिसेंगे सब।
 
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मिलने भी दो
 
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सोख हवा से नमीं
 
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वृद्ध पहाड़।  
 
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छीन लेता है
 
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धनी मेघों से जल
 
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दानी पहाड़।
 
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अनाम गन्ध
 
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ढहा देगा फिर भी
 
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तम का दुर्ग।
 
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मुढ़ैठा बाँधे
 
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बैठता आसन पे
 
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ऋषि सूरज।
 
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लाता है ढो ढोकर
 
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हवा का घोड़ा।
 
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हाइकु हंस
 
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हौले से हवा हुआ
 
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काँपा शैवाल।
 
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ओस की बूँद
 
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कैक्टस पर बैठी
 
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शूली पे सन्त ।
 
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रात सिसकी
 
रात सिसकी

18:19, 25 जून 2010 का अवतरण

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उगने लगे
कंकरीट के वन
उदास मन !


छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।


कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।


चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?


सूर्य के पाँव
चूमकर सो गए
गाँव के गाँव।


यूँ ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।


पतंग उड़ी
डोर कटी‚ बिछुड़ी
फिर न मिली।


धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमे।


बूढा. सूरज
झेलेगा कब तक
तम के दंश।


क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िन्दा
पिक कूकेगा ।


शहरी चक्की
लोकगीत पीसना
अबाध गति।


सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।


लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।


बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।


स्वागत हुआ
दूब–धान आया
लोक जीवन।


मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।


बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।


मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !


नदी बनाता
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।


छीन लेता है
धनी मेघों से जल
दानी पहाड़।


अनाम गन्ध
बिखेर रही हवा
धान के खेत।


थका सूरज
ढहा देगा फिर भी
तम का दुर्ग।


मुढ़ैठा बाँधे
अकड़ा खड़ा चना
माटी का बेटा।


साँझ होते ही
बैठता आसन पे
ऋषि सूरज।


निगल गई
सदियों का सृजन
क्रोधित धरा।


गंध के बोरे
लाता है ढो ढोकर
हवा का घोड़ा।


हाइकु हंस
हौले से हवा हुआ
काँपा शैवाल।


ओस की बूँद
कैक्टस पर बैठी
शूली पे सन्त ।


रात सिसकी
दूब ने सजा लिए
कई हाइकु।