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''' बूढा होता मन''' बूढा होता हैटन ही नहीं मन भी जीवन के धूप-छांवकोशिकाओं पर लिखते हैंउम्र की इबारतें किन्तु, ज्ञेय नहीं होतीअकोशकीय मन की आयु तन की वृद्धोन्मुख कोशिकाएं हौले-हौले मृत्युनाद करती हैं,शोकातुर होते हैं अपने प्रियजनजब मृत्युदेवी झुर्रियाँ सहलाती हैं पर, शोचनीय नहीं हैंमन की झुर्रियाँ,ये ही हैं गर्भस्थल कितने बुद्ध, ईसा और गाँधी के बड़ा फर्क हैतन और मन के बुढापे में मन का बुढापा तन से नहीं आताकालचक्र से नहीं आताविस्थापन और थकान से भी नहीं आता,आता है तो सिर्फ दांतेदार अनुभव-चक्रों में सातात-अनवरत पिसकर.