"अंदर का आदमी / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | दिखाई दे रहा था, | ||
+ | एकदम उसके बाहर | ||
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+ | उजला और चमकदार | ||
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+ | उसके व्यस्त चर्या में | ||
+ | शौच, स्नान, नाश्ता-भोजन की | ||
+ | कोई ख़ास अहमियत नहीं थी, | ||
+ | वह थोड़ी-सी ऊर्जा इकट्ठी कर | ||
+ | रोज़ काम पर निकल जाता था | ||
+ | अंदर के आदमी को | ||
+ | बाहर के मज़बूत आदमी से | ||
+ | जकड़े हुए | ||
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+ | वह अंदर के आदमी से | ||
+ | बदशक्ल था | ||
+ | और ठण्ड में | ||
+ | अपनी दादी की कथरी ओढ़े हुए था | ||
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+ | अंदर का आदमी | ||
+ | बेहद दुबला-पतला था, | ||
+ | वह तमीज़दार था | ||
+ | उसके बालों पर | ||
+ | कंघी हुई थी | ||
+ | कपड़े पुराने थे | ||
+ | पर, धुलाए-इस्तरी कराए हुए थे | ||
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+ | वह गंभीर था, | ||
+ | बाहर के आदमी की तरह | ||
+ | मुंह चियारे हुए | ||
+ | अपनी बदनसीबी | ||
+ | बयां नहीं कर रहा था | ||
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+ | मैंने पहली बार | ||
+ | अंदर के आदमी को | ||
+ | बाहर के आदमी के बाहर | ||
+ | क़दम-दर-क़दम | ||
+ | चलते हुए देख रहा था | ||
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+ | अंदर के आदमी की पीठ पर | ||
+ | एक भारी-भरकम गठरी थी | ||
+ | गठरी में आसमान था-- | ||
+ | सपनों का | ||
+ | जो रहा होगा कभी | ||
+ | टूटा-फूटा, | ||
+ | आज वह बुरादा होकर | ||
+ | कूड़े में तब्दील हो गया था, | ||
+ | उसके सपनों के कूड़े से | ||
+ | सडांध आ रही थी | ||
+ | पर, मोह उसे छोड़ नहीं रहा था | ||
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+ | सपनों के बुरादे में क्या था-- | ||
+ | एक गाँव था | ||
+ | गाँव में एक नन्हा-सा मटियाला घर | ||
+ | घर के बाहर एक गाय | ||
+ | और हूँ-बा-हूँ | ||
+ | अंदर के बूढ़े आदमी की शक्ल का | ||
+ | एक जवान ग्वाला | ||
+ | जो उसे दूह रहा था, | ||
+ | उसके बच्चे | ||
+ | वहां खड़े-खड़े | ||
+ | गिलास-भर दूध की बात जोह रहे थे | ||
+ | वे दूध पी-पी, पल-बढ़ रहे थे | ||
+ | और ग्वाला बूढा हो रहा था | ||
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+ | मैंने पहली बार देखा कि | ||
+ | अंदर का आदमी | ||
+ | इतना दस्तावेजी था, | ||
+ | उसके हर हिज्जे पर | ||
+ | कुछ लिखा हुआ था, | ||
+ | हथेलियों पर | ||
+ | मेहनत की इबारत लिखी हुई थी | ||
+ | बेटों के पालन-पोषण | ||
+ | बेटियों का ब्याह | ||
+ | और पत्नी की अंत्येष्टि के लिए | ||
+ | महाजन का उधार लिल्खा हुआ था | ||
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+ | मेरी आँखें उसका अंतरंग दीख रही थी, | ||
+ | पहली बार मैंने | ||
+ | अंदर के आदमी को | ||
+ | पारदर्शी होते देखा था, | ||
+ | पेट में पचती हुई बासी रोटियां थीं | ||
+ | रोटियों पर वह था | ||
+ | रिक्शा चलाकर | ||
+ | मोहल्ले के बच्चों को | ||
+ | स्कूल पहुंचाते हुए, | ||
+ | पहली बार मैंने देखा कि | ||
+ | एक मेहनतकश के पेट में | ||
+ | शराब, सिगरेट और बीड़ी | ||
+ | नदारद थीं | ||
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+ | उसके दिमाग में | ||
+ | योजनाओं और विचारों का | ||
+ | बवंडर चल रहा था, | ||
+ | घरेलू खर्चों के फटे नुस्खे | ||
+ | उड़ रहे थे | ||
+ | जिन्हें वह जोड़-जोड़ | ||
+ | सामानों के नाम पढ़ रहाथा | ||
+ | और जीवनोपयोगी चीजों को | ||
+ | रेखांकित कर रहा था | ||
+ | |||
+ | मैंने उसके पारदर्शी जिस्म में | ||
+ | बाजार देखा | ||
+ | जहां वह बनियों के आगे | ||
+ | हाथ जोड़े | ||
+ | आता, दाल, चावल | ||
+ | हल्दी-नमक और तेल-मसाला | ||
+ | उधार माँग रहा था | ||
+ | |||
+ | पहली बार | ||
+ | और सिर्फ पहली बार | ||
+ | मैंने देखा कि | ||
+ | अंदर का आदमी | ||
+ | किस कदर बाहर आने | ||
+ | और बाहर के आदमी के | ||
+ | हाथ में हाथ डाले | ||
+ | चलने के लिए | ||
+ | जूझ रहा था | ||
+ | |||
+ | मैं उस अंदर के आदमी से | ||
+ | मिलना चाहता हूँ | ||
+ | और कहना चाहता हूँ | ||
+ | कि अगर वह | ||
+ | उस आदमी से ऊब गया है तो | ||
+ | मेरे साथ चले, | ||
+ | मैं कभी उसे | ||
+ | अपने भीतर जाने के लिए | ||
+ | ज़द्दोज़हद नहीं करूंगा. |
17:17, 8 जुलाई 2010 का अवतरण
अंदर का आदमी
पहली बार
अंदर का आदमी
दिखाई दे रहा था,
एकदम उसके बाहर
साफ-साफ
उजला और चमकदार
उसके व्यस्त चर्या में
शौच, स्नान, नाश्ता-भोजन की
कोई ख़ास अहमियत नहीं थी,
वह थोड़ी-सी ऊर्जा इकट्ठी कर
रोज़ काम पर निकल जाता था
अंदर के आदमी को
बाहर के मज़बूत आदमी से
जकड़े हुए
वह अंदर के आदमी से
बदशक्ल था
और ठण्ड में
अपनी दादी की कथरी ओढ़े हुए था
अंदर का आदमी
बेहद दुबला-पतला था,
वह तमीज़दार था
उसके बालों पर
कंघी हुई थी
कपड़े पुराने थे
पर, धुलाए-इस्तरी कराए हुए थे
वह गंभीर था,
बाहर के आदमी की तरह
मुंह चियारे हुए
अपनी बदनसीबी
बयां नहीं कर रहा था
मैंने पहली बार
अंदर के आदमी को
बाहर के आदमी के बाहर
क़दम-दर-क़दम
चलते हुए देख रहा था
अंदर के आदमी की पीठ पर
एक भारी-भरकम गठरी थी
गठरी में आसमान था--
सपनों का
जो रहा होगा कभी
टूटा-फूटा,
आज वह बुरादा होकर
कूड़े में तब्दील हो गया था,
उसके सपनों के कूड़े से
सडांध आ रही थी
पर, मोह उसे छोड़ नहीं रहा था
सपनों के बुरादे में क्या था--
एक गाँव था
गाँव में एक नन्हा-सा मटियाला घर
घर के बाहर एक गाय
और हूँ-बा-हूँ
अंदर के बूढ़े आदमी की शक्ल का
एक जवान ग्वाला
जो उसे दूह रहा था,
उसके बच्चे
वहां खड़े-खड़े
गिलास-भर दूध की बात जोह रहे थे
वे दूध पी-पी, पल-बढ़ रहे थे
और ग्वाला बूढा हो रहा था
मैंने पहली बार देखा कि
अंदर का आदमी
इतना दस्तावेजी था,
उसके हर हिज्जे पर
कुछ लिखा हुआ था,
हथेलियों पर
मेहनत की इबारत लिखी हुई थी
बेटों के पालन-पोषण
बेटियों का ब्याह
और पत्नी की अंत्येष्टि के लिए
महाजन का उधार लिल्खा हुआ था
मेरी आँखें उसका अंतरंग दीख रही थी,
पहली बार मैंने
अंदर के आदमी को
पारदर्शी होते देखा था,
पेट में पचती हुई बासी रोटियां थीं
रोटियों पर वह था
रिक्शा चलाकर
मोहल्ले के बच्चों को
स्कूल पहुंचाते हुए,
पहली बार मैंने देखा कि
एक मेहनतकश के पेट में
शराब, सिगरेट और बीड़ी
नदारद थीं
उसके दिमाग में
योजनाओं और विचारों का
बवंडर चल रहा था,
घरेलू खर्चों के फटे नुस्खे
उड़ रहे थे
जिन्हें वह जोड़-जोड़
सामानों के नाम पढ़ रहाथा
और जीवनोपयोगी चीजों को
रेखांकित कर रहा था
मैंने उसके पारदर्शी जिस्म में
बाजार देखा
जहां वह बनियों के आगे
हाथ जोड़े
आता, दाल, चावल
हल्दी-नमक और तेल-मसाला
उधार माँग रहा था
पहली बार
और सिर्फ पहली बार
मैंने देखा कि
अंदर का आदमी
किस कदर बाहर आने
और बाहर के आदमी के
हाथ में हाथ डाले
चलने के लिए
जूझ रहा था
मैं उस अंदर के आदमी से
मिलना चाहता हूँ
और कहना चाहता हूँ
कि अगर वह
उस आदमी से ऊब गया है तो
मेरे साथ चले,
मैं कभी उसे
अपने भीतर जाने के लिए
ज़द्दोज़हद नहीं करूंगा.