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(नया पृष्ठ: सवाल अंतहीन वाकशून्यता के अनुत्तरित दौर में बस सवाल ही सवाल हैं…)
 
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नपुंसक सवालों के  
 
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बलबूते पर  
 
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योग्य उत्तर पैदा नहीं हो सकते,
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उसके बांझपन में  
 
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कुछ भी बो लो  
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वह अंकुरित हो
 
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छायादार वट नहीं बन सकता.
 
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इसीलिए,
 
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अब कहीं भी छाया नहीं है
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भ्रष्टाचार के गरल ग्रीष्मकाल में
 
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संस्कृतियाँ, समाज, इंसान
 
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सभी धूं-धूं कर जल रहे हैं
 
सभी धूं-धूं कर जल रहे हैं
 
और जल रहे हैं
 
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उनके मन में दफ़्न
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असंख्य मृत-अर्धमृत सवाल
 
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जो उनकी आँखों से बिम्बित  
 
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हथियारबंद दमदार सैनिक.
 
हथियारबंद दमदार सैनिक.
  
सवालों की बाझ कोख से  
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उत्तर पाने के अदम्य दौर में  
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पराजय के पूर्वाभास ने
 
पराजय के पूर्वाभास ने
 
सवालों को औरताना लिबास में
 
सवालों को औरताना लिबास में
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सबसे बड़ा कब्रिस्तान है
 
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जिसमें जिंदे और अबोध सवाल
 
जिसमें जिंदे और अबोध सवाल
नवजात ही गाद दिए जाते हैं
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नवजात ही गाड़ 
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इसके पहले कि हम  
 
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सवालों के गर्द खाए दर्पण में
 
सवालों के गर्द खाए दर्पण में
अपना स्वप्निल संसार जोफ सकें ,
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हंसती-खेलती
 
हंसती-खेलती
 
तुष्ट-संतुष्ट  
 
तुष्ट-संतुष्ट  

17:22, 14 जुलाई 2010 का अवतरण

सवाल

अंतहीन वाकशून्यता के अनुत्तरित दौर में बस सवाल ही सवाल हैं, भय और कायरता के केंचुल से लुंज बने काल-परिधि में बेवज़ह क़ैद काट रहे बेशुमार गूंगे-बहरे सवाल हैं.

नपुंसक सवालों के बलबूते पर योग्य उत्तर पैदा नहीं हो सकते, उसके बांझपन में कुछ भी बो लो, वह अंकुरित हो छायादार वट नहीं बन सकता.

इसीलिए, अब कहीं भी छाया नहीं है, भ्रष्टाचार के गरल ग्रीष्मकाल में संस्कृतियाँ, समाज, इंसान सभी धूं-धूं कर जल रहे हैं और जल रहे हैं उनके मन में दफ़्न असंख्य मृत-अर्धमृत सवाल जो उनकी आँखों से बिम्बित अपनी मनहूस छायाएं नहीं उतार सकते इस जमीन पर और नहीं बन सकते हथियारबंद दमदार सैनिक.

सवालों की बांझ कोख से उत्तर पाने के अदम्य दौर में, पराजय के पूर्वाभास ने सवालों को औरताना लिबास में इस कदर जनाना बना दिया है कि लोकतंत्र के रंडीखाने में उनकी खूब छनने लगी है कामातुर व्यवस्था के संग.

सवालों की ऊसर ज़मीन पर बुतनुमा खड़े होकर सिर पर सवालों का आसमान ढोते चतुर्दिक भनभनाते सवालों से घिरे रहना ही हमारी नियति है.

दरअसल, आदमी फ़िज़ूल-बेफिजूल ज़रुरी-गैरज़रूरी सवालों का सबसे बड़ा कब्रिस्तान है जिसमें जिंदे और अबोध सवाल नवजात ही गाड़ दिए जाते हैं इसके पहले कि हम सवालों के गर्द खाए दर्पण में अपना स्वप्निल संसार जोह सकें , हंसती-खेलती तुष्ट-संतुष्ट दुनिया टटोल सकें, एक मायावी तंत्र उन्हें पालित-पोषित कर भाषा और अर्थ पहनाने तथा सामाजिक व्याकरण से शिष्ट बनाने के बजाय अपने आदमखोर पंजों से उनका गला घोंट उनकी बेजुबान लाशें हमारी गोद में पटक देता है.