"सपने में मोर / मुकेश मानस" के अवतरणों में अंतर
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एक आवाज़ की दस्तक ने | एक आवाज़ की दस्तक ने |
19:06, 22 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
ख़्वाब में
एक आवाज़ की दस्तक ने
मुझको जगा दिया
मेरे कमरे की ख़िड़की से
झाँक रही थी सुबह
बादल छाए हुए थे आसमान में
बारिश कभी भी हो सकती थी
बड़ा ही खुशगवार समाँ था
और वो आवाज़ थी
कि मुसलसल आ रही थी
मन को छुए जा रही थी
जाने क्या था उस आवाज़ में
कि याद आया मुझे अपना गाँव
अपना मुहल्ला, अपना घर
और अपने मुहल्ले का तालाब
उसके किनारे खड़े हरे-भरे पेड़
अपने खेत और बगीचा अमरूद का
और ऐसी जाने कितनी ही चीज़ें
जो मेरे बचपन से जुड़ी थीं
जिनसे बिछ्ड़कर
फिर कभी मिलना नहीं हुआ
मैं उठा
और उस आवाज़ के पीछे-पीछे
चलता चला गया
मैंने देखा कि मेरे फ्लैट की छत पर
अपने समूचे पंख फैलाए
नाच रहा था एक मोर
वो सचमुच एक मोर था
जो न जाने कहाँ से आकर
नाच रहा था
मेरे फ्लैट की छत पर
उसे नाचता देख
न जाने क्यों
भर आईं मेरी आँखें
आँख खुली तो देखा
कि रात अभी बाक़ी थी
और अन्धेरा था कमरे में
मैंने महसूस किया
अपनी आँखों में गीलापन
मैंने देखा था एक सपना
और सपने में देखा था
जीता जागता एक मोर
सपना तो सपना ही था
मगर हकीकत थी कुछ और
किसी अथाह सागर में डूब गये थे
दिल्ली के सारे गाँव
सारे ताल, सारे खेत
पेड़ सारे हरे भरे
खो गये थे किसी अन्धेरी सुरंग में
दिल्ली की सड़कें और इमारतें
लील गई थीं
दिल्ली के सारे मोर
रचनाकाल : 2004