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रेल के सपने / पाब्लो नेरूदा
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07:31, 9 सितम्बर 2010
उगती बुझती उदासियों पर ।
गाड़ी में छूट गईं कुछ आत्माएँ,
जैसे
चाभियां
चाभियाँ
थीं बिन तालों की,
सीट के नीचे गिरी हुईं ।
अनिल जनविजय
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