"दिल्ली / गुलाम मोहम्मद शेख" के अवतरणों में अंतर
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कच्ची मूली के स्वाद की-सी धूप | कच्ची मूली के स्वाद की-सी धूप | ||
तुगलकाबाद के खंडहरों में घास और पत्थरों का संवनन | तुगलकाबाद के खंडहरों में घास और पत्थरों का संवनन | ||
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आँखों को बेधकर सुई की मानिंद | आँखों को बेधकर सुई की मानिंद | ||
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जामा-मस्जिद की सीढ़ियों की क़तार | जामा-मस्जिद की सीढ़ियों की क़तार | ||
01:06, 29 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
टूटे टिक्कड़ जैसे किले पर
कच्ची मूली के स्वाद की-सी धूप
तुगलकाबाद के खंडहरों में घास और पत्थरों का संवनन
परछाइयों में कमान, कमान में परछाइयाँ;
खिड़की मस्जिद
आँखों को बेधकर सुई की मानिंद
आर-पार निकलती
जामा-मस्जिद की सीढ़ियों की क़तार
पेड़ की जड़ों से अन्न नली तक उठ खड़ा होता क़ुतुब
चारों ओर महक
अनाज की, माँस की, ख़ून की, जेल की, महल की
बीते हुए कल की, सदियों की
साँस इस क्षण की
आँख आज की उड़ती है इतिहास में
उतरती है दरार में ग़ालिब की मजार की
भटकती है ख़ानखानान की अधखाई हड्डी की खोज में
ओढ़ जहाँआरा की बदनसीबी को
निकल पड़ती है मक़बरा दर मक़बरा ।
अभी भी धूल, अभी भी कोहरा
अब भी नहीं आया कोई फ़र्क माँस ओर पत्थर में
लाल किले की पश्चिमी कमान में सोई
फ़ाख्ता की योनि की छत से होती हुई
घुपती है मेरी आँख में
किरण एक सूर्य की ।
अभी तो भोर ही है
सत्य को संभोगते हैं स्वप्न
सवेरा कैसा होगा ?
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : ज्योत्सना मिलन