"चलो घूम आयें / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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उठो, कब तक बैठी रहोगी | उठो, कब तक बैठी रहोगी | ||
इस तरह अनमनी | इस तरह अनमनी | ||
− | चलो घूम | + | चलो घूम आएँ। |
तुम अपनी बरसाती डाल लो | तुम अपनी बरसाती डाल लो | ||
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झीसियाँ पड़नी शुरु हो गई हैं | झीसियाँ पड़नी शुरु हो गई हैं | ||
जब झमाझम बरसने लगेंगे | जब झमाझम बरसने लगेंगे | ||
− | किसी पेड़ के नीचे खड़े हो | + | किसी पेड़ के नीचे खड़े हो जाएँगे |
पेड़ – | पेड़ – | ||
उग नहीं रहा है तेज़ी से | उग नहीं रहा है तेज़ी से | ||
हमारी-तुम्हारी हथेलियों के बीच | हमारी-तुम्हारी हथेलियों के बीच | ||
थोड़ी देर में देखना, यह एक | थोड़ी देर में देखना, यह एक | ||
− | छतनार दरख़्त में बदल | + | छतनार दरख़्त में बदल जाएगा । |
और कसकर पकड़ लो मेरा हाथ | और कसकर पकड़ लो मेरा हाथ | ||
अपने हाथों से | अपने हाथों से | ||
उठो, हथेलियों को गर्म होने दो | उठो, हथेलियों को गर्म होने दो | ||
− | इस हैरत से क्या देखती हो? | + | इस हैरत से क्या देखती हो ? |
मैं भीग रहा हूँ | मैं भीग रहा हूँ | ||
तुम अगर यूँ ही बैठी रहोगी | तुम अगर यूँ ही बैठी रहोगी | ||
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अच्छा छोड़ो | अच्छा छोड़ो | ||
नहीं भीगते | नहीं भीगते | ||
− | तुम भीगने से डरती हो न! | + | तुम भीगने से डरती हो न ! |
उठो, देखो हवा | उठो, देखो हवा | ||
पंक्ति 38: | पंक्ति 38: | ||
रास्ता जैसे बाहर से मुड़कर | रास्ता जैसे बाहर से मुड़कर | ||
हमारी धमनियों के जंगल में | हमारी धमनियों के जंगल में | ||
− | चला जा रहा | + | चला जा रहा है । |
− | उठो घूम | + | उठो घूम आएँ |
कब तक बैठी रहोगी | कब तक बैठी रहोगी | ||
− | इस तरह | + | इस तरह अनमनी । |
इस जंगल की | इस जंगल की |
20:03, 30 सितम्बर 2010 का अवतरण
उठो, कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी
चलो घूम आएँ।
तुम अपनी बरसाती डाल लो
मैं छाता खोल लेता हूँ
बादल –
वह तो भीतर बरस रहे हैं
झीसियाँ पड़नी शुरु हो गई हैं
जब झमाझम बरसने लगेंगे
किसी पेड़ के नीचे खड़े हो जाएँगे
पेड़ –
उग नहीं रहा है तेज़ी से
हमारी-तुम्हारी हथेलियों के बीच
थोड़ी देर में देखना, यह एक
छतनार दरख़्त में बदल जाएगा ।
और कसकर पकड़ लो मेरा हाथ
अपने हाथों से
उठो, हथेलियों को गर्म होने दो
इस हैरत से क्या देखती हो ?
मैं भीग रहा हूँ
तुम अगर यूँ ही बैठी रहोगी
तो मैं भी भीग-भीगकर
तुम्हें भिगो दूँगा।
अच्छा छोड़ो
नहीं भीगते
तुम भीगने से डरती हो न !
उठो, देखो हवा
कितनी शीतल है
और चाँदनी कितनी झीनी, तरल, पारदर्शी,
रास्ता जैसे बाहर से मुड़कर
हमारी धमनियों के जंगल में
चला जा रहा है ।
उठो घूम आएँ
कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी ।
इस जंगल की
एक ख़ास बात है
यहाँ चाँद की किरणें
ऊपर से छनकर
दरख़्तों के नीचे नहीं आतीं,
नीचे से छनकर ऊपर
आकाश में जाती हैं।
अपने पैरों के नाखूनों को देखो
कितने चाँद जगमगा रहे हैं।
पैर उठाते ही
शीतल हवा लिपट जाएगी
मैं चंदन हुआ जा रहा हूँ
तुम्हारी चुप्पी के पहाड़ों से
खुद को रगड़कर
तुम्हारी त्वचा पर फैल जाउंगा।
अच्छा जाने दो
त्वचा पर चंदन का
सूख जाना तुम्हें पसंद नहीं!
फिर भी उठो तो
ठंडी रेत है चारों तरफ
तलुओं को गुदगुदाएगी, चूमेगी,
तुम खिलखिला उठोगी।
कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी।
यह रेत
मैंने चूर-चूर होकर
तुम्हारी राह में बिछाई है।
तुम जितनी दूर चाहना
इस पर चली जाना
और देखना
एक भी कण तुम्हारे
पैरों से लिपटा नहीं रहेगा
स्मृति के लिए भी नहीं।
उठो, कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी
चलो घूम आएं।