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14:21, 1 जून 2007 का अवतरण
रचनाकार: शैलेन्द्र
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खेतों में, खलिहानों में,
मिल और कारखानों में,
चल-सागर की लहरों में
इस उपजाऊ धरती के
उत्तप्त गर्भ के अन्दर,
कीड़ों से रेंगा करते--
वे ख़ून पसीना करते !
वे अन्न अनाज उगाते,
वे ऊंचे महल उठाते,
कोयले लोहे सोने से
धरती पर स्वर्ग बसाते,
वे पेट सभी का भरते
पर ख़ुद भूखों मरते हैं !
वे ऊंचे महल उठाते
पर ख़ुद गन्दी गलियों में--
क्षत-विक्षत झोपड़ियों में--
आकाशी छत के नीचे
गर्मी सर्दी बरसातें,
काटते दिवस औ' रातें !
वे जैसे बनता जीते,
वे उकड़ू बैठा करते,
वे पैर न फैला पाते,
सिकुड़े-सिकुड़े सो जाते !
अनभिज्ञ बाँह के बल से,
अनजान संगठन बल से,
ये मूक, मूढ़, नत निर्धन,
दुनिया के बाज़ारों में,
कौड़ी कौड़ी को बिकते
पैरों से रौंदे जाते,
ये चींटी से पिस जाते !
ये रोग लिए आते हैं
बीवी को दे जाते हैं,
ये रोग लिए आते हैं
रोगी ही मर जाते हैं !
- * * * * * *
फिर वे हैं जो महलों में
तारों से कुछ ही नीचे
सुख से निज आँखें मीचें
निज सपने सच्चे करते
मखमली बिस्तरों पर से,
टेलीफूनों के ऊपर
पैतृक पूँजी के बल से,
बिन मेहनत के पैसे से--
दुनिया को दोलित करते !
निज बहुत बड़ी पूँजी से,
छोटी पूँजियाँ हड़प कर
धीरे - धीरे समाज के
अगुआ ये ही बन जाते,
नेता ये ही बन जाते,
शासक ये ही बन जाते!
शासन की भूख न मिटती,
शोषण की भूख न मिटती,
ये भिन्न - भिन्न देशों में
छल के व्यापार सजाते
पूँजी के जाल बिछाते,
ये और और बढ़ जाते!
तब इन जैसा ही कोई
यदि टक्कर का मिल जाता,
औ' ताल ठोंक भिड़ जाता
तो महायुद्ध छिड़ जाता!
तब नाम धर्म का लेकर,
कर्तव्य कर्म का लेकर,