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भारत / अनिल जनविजय


(कवि भारत यायावर के लिए)


भारत, मेरे दोस्त! मेरी संजीवनी बूटी

बहुत उदास हूँ जबसे तेरी संगत छूटी


संगत छूटी, ज्यों फूटी हो घी की हांडी

ऎसा लगता है प्रभु ने भी मारी डांडी


छीन कविता मुझे फेंक दिया खारे सागर

औ' तुझे साहित्य नदिया में भर मीठी गागर


जब-जब आती याद तेरी मैं रोया करता

यहाँ रूस में तेरी स्मॄति में खोया करता


मुझे नहीं भाती सुख की यह छलना माया

अच्छा होता, रहता भारत में ही कॄश्काया


भूखा रहता सर्दी - गर्मी, सूरज तपता बेघर होता

अपनी धरती अपना वतन अपना भारत ही घर होता


भारत में रहकर, भारत तू ख़ूब सुखी है

रहे विदेश में देसी बाबू, बहुत दुखी है


1999 में रचित