Last modified on 26 जनवरी 2011, at 23:23

बिछोह / बरीस पास्तेरनाक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:23, 26 जनवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दहलीज पर खड़ा
अंदर देखता है एक आदमी
अपने घर की ओर ।
वह अपना घर पहचान नहीं सकता
एक उड्डयन की तरह था
उसकी प्रेयसी का चले जाना
और हर तरफ़ विध्वंस के अवशेष थे
और थे सभी कमरे अस्त-व्यस्त अवस्था में ।

डबरायीं आँखें और चकराते सर
दे नहीं पा रहे थे नापने
अपने ध्वंस के विस्तार ।

सुबह से कानों में सागर गरज़ता रहा था
पता नहीं, वह जगा था
या स्वप्न देख रहा था ।
समुद्र की बात न जाने क्यों
उसके मस्तिष्क में घर किए जा रही थी ।

खिड़की के शीशे पर जमी धुँध से
जब ओझल था बाहर का
विशाल-विस्तृत संसार
अवसाद का नैराश्य
समुद्री रेगिस्तान से भी अधिक
महसूस हो रहा था ।

उसकी प्रेयसी उसके उतने ही पास थी
और मधुर भी अपने कलाप में
जितने सागर के नज़दीक होते
उसके साहिल अपने हर समर्पण में ।

जैसे हर तूफ़ान के बाद
नरकटों के ऊपर
तरंगों की बाढ़ भींज जाती है
उसी तरह उसकी प्रेयसी की तस्वीर
घुल जाती है उसके मानस में ।

मुसीबत के वर्ष में
जब ज़िंदगी का कोई रूप ही
नहीं उभर पाता था
भाग्य का ज्वार
सागर के तल से बहा लाया था
उसके पास उसकी प्रेयसी को ।

मुसीबतें बेशुमार थीं
किंतु ज्वार उसे कठिनाई से
संकट के पार्श्व से निकालकर
तट पर ले आया था ।
अब वह चली गई सदा के लिए,
शायद अनिच्छा से ।

जुदाई दोनों को खा जाएगी
असह्य दुख निगल जाएगा उन्हें
उनकी हड्डियों को-- और सब कुछ ।
वह अपने ही चारों तरफ़
देख रहा था ।
विदा के समय उसने सभी चीज़ें उलट-पुलट दी थीं
आलमारी की दराज़ों से सभी कुछ
फेंक-फाँक दिया था बाहर ।

वह घूमता रहा झुलमुल शाम तक
दराजों में वापस रखते
बिखरी वस्तुओं के टुकड़े
कतरन के लिए व्यवहार में लाए गए नमूने
और फिर कशीदे के एक टुकड़े में
अब तक अटकी हुई एक सुई के चुभ जाने पर
उसे होता है अपने वर्तमान का बोध
वह देख पाता है अपनी प्रेयसी को
और सुबकने लगता है चुपके-चुपके !


अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह