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बसंत / स्वप्निल श्रीवास्तव

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बसंत आएगा इस वीरान जंगल में जहाँ

वनस्पतियों को सिर उठाने के ज़ुर्म में

पूरा जंगल आग को सौंप दिया गया था

वसन्त आएगा दबे पाँव हमारे-तुम्हारे बीच

संवाद कायम करेगा उदास-उदास मौसम में

बिजली की तरह हँसी फेंक कर बसंत

सिखाएगा हमें अधिकार से जीना


पतझड़ का आख़िरी बैंजनी बदरंग पत्ता समय के बीच

फ़ालतू चीज़ों की तरह गिरने वाला है

बेआवाज़ एक ठोस शुरूआत

फूल की शक्ल में आकार लेने लगी है


मैंने देखा बंजर धाती पर लोग बढ़े आ रहे हैं

कंधे पर फावड़े और कुदाल लिए

देहाती गीत गुनगुनाते हुए

उनके सीने तने हुए हैं

बादल धीरे-धीरे उफ़क से ऊपर उठ रहे हैं

ख़ुश्गवार गंधाती हवा उनके बीच बह रही है


एक साथ मिलकर कई आवाज़ें जब बोलती हैं तो

सुननेवालों के कान के परदे हिलने लगते हैं

वे खिड़कियाँ खोलकर देखते हैं

दीवार में उगे हुए पेड़ की जड़ों से

पूरी इमारत दरक गई है