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साँचा:KKPoemOfTheWeek

घृणा का गान

रचनाकार: अज्ञेय

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो भाई को अछूत कह, वस्त्र बचाकर भागे !
तुम, जो बहनें छोड़ बिलखती बढ़े जा रहे आगे !
रुककर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर, ऊँची दुकानों में
उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में
तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जलदान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,
'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़कर केश !
नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो पाकर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-
'निश्शक्तों की हत्या में कर सकते हो अभिमान,
जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल
और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल !'
तुम जिसकी लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !