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बूढ़ी उदास औरतें / अर्चना भैंसारे

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वे जो खारिज कर दी गईं हैं
रसोई, ऊसारी, आँगन और चौपालों से
मिल जाया करती थीं,
सुबह-शाम कभी भी
एक दूसरे को घेरे
हँसी-मज़ाक करतीं
या करती मोल-भाव चूडियों का
आते-जाते रोक लेती किसी फेरी वाले को
ख़रीद लेती पुरानी चप्‍पल या कि
ठीकरों के बदले नए बर्तन,

अपने पेट से बाँधे परिवार की भूख
झुकी रहती खेतों के सीनों में
लकड़ी के गठ्ठरों में लादे रहती परम्पराओं के सूत्र
फिर भी अजनाल के घाट पहुँचती रही झुण्डों में
हर डुबकी के साथ उतारती गई
शेष पापों का ऋण
तमाम रिश्‍तों को निभाती नम्र ही बनीं रही
अन्तत:
बाहर से साफ़-सुथरी दिखने वाली औरतें
लिपटी रहती
किसी न किसी मलीन चादर के तार से
वे अब मिल जाया करतीं हैं कभी-कभार
बिखरी-सी यहाँ-वहाँ
मन ही मन उँगलियों पर गिनती है
जाने क्‍या

लौट जाना चाहती हैं
शायद वे उन्‍हीं झुण्डों की ओर
जहाँ ख़ुद ही मरहम होतीं
अपने घावों पर
वे खारिज कर दी गई हैं,
समूल जीवन से
कुछ बूढ़ी उदास औरतें