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तलाश / सोना श्री

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याद नहीं है
कब से खिंची
चली जा रही थी मैं
लहरों की तरह
साहिल की ओर
उसकी तलाश में l

मैं कोशिशों में थी
उसे अपने अंदर समाने की
मगर मेरी मौजें
नियंत्रित थी
मर्यादाओं में l

अब अगर मैं
और जोर लगाती
तो वो हिमाकत
कई घर तबाह कर देती
अपने आक्रोश में l

सो मैं रूक गयी
लेकिन आज भी
मेरे अंतर में उठती लहरें
साहिल तक जाती है
उसकी तलाश में l