Last modified on 26 अक्टूबर 2009, at 22:29

दीन-हित बिरद पुराननि गायो / तुलसीदास

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:29, 26 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दीन-हित बिरद पुराननि गायो।
आरत-बन्धु, कृपालु मृदुलचित जानि सरन हौं आयो॥१॥
तुम्हरे रिपुको अनुज बिभीषन बंस निसाचर जायो।
सुनि गुन सील सुभाउ नाथको मैं चरनानि चितु लायो॥२॥
जानत प्रभु दुख सुख दासिनको तातें कहि न सुनायो।
करि करुना भरि नयन बिलोकहु तब जानौं अपनायो॥३॥
बचन बिनीत सुनत रघुनायक हँसि करि निकट बुलायो।
भेंट्यो हरि भरि अंक भरत ज्यौं लंकापति मन भायो॥४॥
करपंकज सिर परसि अभय कियो, जनपर हेतु दिखायो।
तुलसीदास रघुबीर भजन करि को न परमपद पायो ?॥५॥