Last modified on 17 दिसम्बर 2009, at 14:44

चलते-चलते / कविता वाचक्नवी

चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:44, 17 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चलते-चलते

गली
बस्ती
मुहल्ले
सारा शहर
सारा देश
सो गया।

तहखाने से उठकर
दो पाँव
घूमते हैं-
गली
बस्ती
बाज़ार
अटारी
चौबारा
दालान
चबूतरा
चौपाल
सड़क
कमरे
पहाड़
हाट
जंगल।
भटकते हैं-
हरियाली
पानी
फूल
चहल-पहल
विश्रांति
जाने क्या-क्या खोजते।

दो पावों के ऊपर
सारी देह गायब है,
उजाले में
बाहर नहीं आ सकते।

बस
दो यायावरी पाँव
भटकते हैं इसीलिए
अंधेरे में
अकेले।