Last modified on 20 अप्रैल 2011, at 01:39

पावक सर्व अंग काठहिं माँ / जगजीवन

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:39, 20 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पावक सर्व अंग काठहिं माँ, मिलिकै करखि जगावा।
ह्वैगै खाक तेज ताही तैं, फिर धौं कहाँ समावा॥
भान समान कूप जब छाया, दृष्टि सबहि माँ लावा।
परि घन कर्म आनि अंतर महँ, जोति खैंचि ले आवा।
अस है भेद अपार अंत नहिं, सतगुरु आनि बतावा।
'जगजीवन जस बूझि सूझि भै, तेहि तस भाखि जनावा॥