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घणीं अंधारी छै या रात, पण हुयौ काईं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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घणीं अंधारी छै या रात, पण हुयौ काईं
बगण गई छै बणी बात, पण हुयौ काईं

छै चारू मे’र तरक्क्यां का खूब हंगामा
अठी छै दुख्यां की सौगात, पण हुयौ काईं

तसाया खेतां - खलाणां पे आग का औसाण
समन्दर पे छै बरसात, पण हुयौ काईं

जमारा ! थारा छलां की बिसात पे य्हां तो
हुई छै म्हां की सदा मात, पण हुयौ काईं

मटर ई ग्यौ छै वा अरमानां कौ हरयौ मांडौ
लुटी छै सपना की सौगात, पण हुयौ काईं

म्हानै ई मीच’र आख्यां ’यकीन’ वां पे करयौ
म्हं सूं ई वां नें करी घात, पण हुयौ काईं