भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत गहरे हैं पिता / अनूप अशेष

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:10, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत गहरे हैं पिता
पेडों से भी बड़े
उँगलियाँ
पकड़े हुए हम
पाँव में उनके खड़े ।

भोर के हैं उगे सूरज
साँझ-सँझवाती,
घर के हर कोने में उनके
गंध की थाती ।

आँखों में मीठी छुअन
प्यास में
गीले घड़े ।

पिता घर हैं बड़ी छत हैं
डूब में है नाव,
नहीं दिखती
ठेस उनकी
नहीं बहते घाव ।

दुख गुमाए पिता
सुखों से
भी लड़े ।

धार हँसिए की रहे
खलिहान में रीते,
ज़िन्दगी के
चार दिन
कुछ इस तरह बीते ।

मोड़ कितने मील आए
पाँव से
अपने अड़े ।