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बहुत गहरे हैं पिता / अनूप अशेष
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बहुत गहरे हैं पिता
पेडों से भी बड़े
उँगलियाँ
पकड़े हुए हम
पाँव में उनके खड़े ।
भोर के हैं उगे सूरज
साँझ-सँझवाती,
घर के हर कोने में उनके
गंध की थाती ।
आँखों में मीठी छुअन
प्यास में
गीले घड़े ।
पिता घर हैं बड़ी छत हैं
डूब में है नाव,
नहीं दिखती
ठेस उनकी
नहीं बहते घाव ।
दुख गुमाए पिता
सुखों से
भी लड़े ।
धार हँसिए की रहे
खलिहान में रीते,
ज़िन्दगी के
चार दिन
कुछ इस तरह बीते ।
मोड़ कितने मील आए
पाँव से
अपने अड़े ।