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नायाब नगीना/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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ऐसा जीना
भी क्या जीना,
सूख न पाए कभी पसीना ।
 
चाह न थी
हीरा मोती की,
थी केवल रोटी धोती की,
फिर भी पग-पग पड़ा ज़िन्दगी
को समझौते का विष पीना ।
 
मुट्ठी भर
ईमान बचा है
उसकेा भी मिल रही सज़ा है,
एक यही ताज्जुब लगता है
फटा नहीं क्यों अब तक सीना ।
 
आँख उठी
कुटिया की जब-जब
डाली धूल हवा ने तब-तब
छीन ले गई वो होंठों से
हँसने का नायाब नगीना
ऐसा जीना भी क्या जीना
सूख न पाए कभी पसीना ।