भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चोटें / विजय किशोर मानव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:34, 20 मार्च 2011 का अवतरण
दुखती है पीठ
पैर सीधा नहीं होता
सर्दी में पिण्डलियों पर
चिपक जाते हैं दर्द
उम्र भर की कमाई की तरह
दो बूढ़े बातें करते
गिर पड़ने से ऊंचे पेड़ की फुनगी से
या दुर्घटना के बाद महीनों प्लास्टर लगे रहने
कभी उम्र से दुखते उठा रहे पैर की कथा
आज़ादी की लड़ाई में कहीं नाम नहीं
जेल नहीं ले गए फिरंगी
टूटी पुलिस की लाठी
हड्डियों के मुकाबले
पचास बरस के दर्द को
सहलाते उस दूसरे बूढ़े की आंखें चमक उठती है ।