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गोपी बिरह(राग मलार-3) / तुलसीदास

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गोपी बिरह(राग मलार-3)

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दीन्हीं है मधुप सबहि सिख नीकी।
 सोइ आदरौ, आस जाके जियँ बारि बिलोवत घी की।1।

 बुझी बात कान्ह कुबरी की, मधुकर कछु जनि पूछौ।
बूझी बात कान्ह कुबरी की, मधुकर कछु जनि पूछौ।
ठालीं ग्वालि जानि पठए अलि, कह्यो है पछोरन छूछौ।2।
 
हमहूँ कछुक लखी ही तब की औरेब नंदलला की।
ये अब लही चतुर चेरी पै चोखी चाल चलाकी।3।

गए कर तेें ,घर तें, आँगन तें, ब्रजहू तें ब्रजनाथ।
तुलसी प्रभु गयो चहत मनहु तें, सो तो है हमारे हाथ।4।


()

ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें।
जाकी कहनि रहनि अनमिल अलि! सुनत समुझियत थोरें।1।

आपु, कंज मकरंद सुधा हृद हृदय रहत नित बोरें।
हम सों कहत बिरह स्त्रम जैहैं गगन कूप , खनि खोरें ।2।

धान को गाँव पयार तें जानिय ग्यान बिषय मन मोरें।
तुलसी अधिक कहें न रहैं रस, गूलरि को सो फल फोरें।3।

()

आली! अति अनुचित, उतरू न दीजै।
सेवक सखा सनेही हरि के, जो कछु कहैं सो कीजै।1।

देस काल उपदेस सँदेसो सादर सब सुनि लीजै।
 कै समुझिबो, कै ये समुझैहैं, हारेहुँ मानि सहीजै।2।

सखि सरोष प्रिय दोष बिचारत प्रेम पीन पन छीजै।
खग मृग मीन सलभ सरसिज गति सुनि पाहनौ पसीजै ।

 तुलसिदास अपराध आपनौ, नंदलाल बिनु जीजै।4।