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मौज ए ग़म गुल क़तर गई होगी / ज़िया फतेहाबादी

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मौज ए ग़म गुल क़तर गई होगी ।
नद्दी चढ़ कर उतर गई होगी ।

ग़र्क होना था जिस को वो किश्ती,
साहिलों से गुज़र गई होगी ।

हम ज़मींवालों की जो पहले-पहल,
आसमाँ पर नज़र गई होगी ।

आईनाख़ाने में बा हर सूरत,
आब-ओ ताब-ए गुहर गई होगी ।

हादसों आफ़तों मसाइब से,
ज़िन्दगी क्या जो डर गई होगी ।

उस सफ़र में ख़लाओं के ता दूर,
हसरत-ए बाल-ओ पर गई होगी ।

ऐ ’ज़िया’ बात अक़ल-ओ दानिश की
दिल का नुक़सान कर गई होगी ।