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मन चाहे यह / अनिल जनविजय

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नहीं
दिल नहीं करता अब
यहाँ विदेश में रहने का

मन चाहे यह
मैं अपने भूखे-नंगे
जन-गण के पास जाऊँ

कष्ट में है जो पीड़ा में
है दुश्मन के फेरे में
साम्प्रदायिकता के घेरे में
तकलीफ़देह, घुटन भरे हैं दिन
उन्होंने डुबो दिया मेरे जन-गण को
मन्दिर-मस्ज़िद के अँधेरे में

काल है यह बदतर अन्यायी
उजाले पर
फिरी हुई है स्याही
निराशा भरे इस विकट समय में
साथ उसका निभाऊँ
मैं अपने जन-गण के पास जाऊँ

(2004 में मास्को में रचित)